महात्मा गाँधी जी के दर्शन व विचारों की प्रासंगिकता पर डाला प्रकाश

02 अक्तूबर को प्रति वर्ष हम उस महामानव को उसके जन्मदिन पर याद करते हैं जिसे हमने “राष्ट्रपिता” का मान दिया । जब अंग्रेजी राज में सूर्य अस्त नहीं होता था तब एक अंग्रेज द्वारा किसी काले आदमी को ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर फेंक देना , एक सामान्य घटना थी लेकिन उस घटना ने मोहनदास करमचंद गांधी के जीवन , सोच व लक्ष्य को बदल कर रख दिया और इस प्रकार एक नये मोहनदास का जन्म हुआ जिसने विशालतम व शक्तिशाली ब्रिटिश हुकूमत को भारत से उखाड़ फेंका। इस हाड़ मांस के इन्सान के लिए महान् वैज्ञानिक आइन्सटीन को कहना पड़ा कि जब हमारी आने वाली पीढियाँ इसके विषय में पढ़ेगी तो उनको यकीन ही नहीं होगा कि ऐसा इन्सान भी इस धरती पर पैदा हुआ था ।
अधिकांश लोग गान्धी को उनके राजनीतिक काम व जनान्दोलन के कारण जानते हैं । वह चाहे दक्षिण अफ्रीका में कालों की लड़ाई हो अथवा भारत में चम्पारण के “नीलहों “की लड़ाई या फिर ” असहयोग आन्दोलन”, ” ” सविनय अवज्ञा आन्दोलन” तथा “भारत छोड़ो आंदोलन” हो और अंततः भारत को आजादी मिली । कांग्रेस जो एक खास वर्ग के हितों की रक्षक थी उसे आजादी के जन आन्दोलन में बदलने का काम गान्धी के करिश्माई व्यक्तित्व से ही संभव हो सका ।
आज हम गान्धी के राजनीतिक आन्दोलनों की नहीं अपितु उनके सामाजिक,शैक्षिक , स्वास्थ्य तथा साफ सफाई के लिए किए गये कार्यों की चर्चा करेंगे जो आज के संदर्भ में ज्यादा प्रासंगिक व समीचीन हैं ।
दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के बाद मोहनदास करमचंद गांधी अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के सुझाव पर पहले भारत भ्रमण कर भारत की असली तस्वीर से परिचित हुए । पुनः 1916 के कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में उनकी मुलाकात चम्पारण के किसान राजकुमार शुक्ल से हुई जिन्होंने चम्पारण में नीलहे गोरों की ज्यादती से परेशान किसानों की पीड़ा उनको सुनाई। गान्धी ने उनसे चम्पारण आने का वायदा किया और 1917 में चम्पारण गये जहाँ नील की खेती की अन्यायपूर्ण ” तीन कठिया प्रथा ” के विरुद्ध किसानों की लड़ाई का नेतृत्व कर इसे सदैव के लिए समाप्त कराने में सफल हुए ।
चम्पारण में गांधी ने देखा कि किसानों में व्याप्त घोर अशिक्षा व अज्ञानता उनकी तमाम समस्याओं का मूल कारण है। गान्धी ने महसूस किया कि ” स्थायी तरह का काम सही ढंग की ग्रामीण शिक्षा के बिना असंभव था । रैयतों का अज्ञान करुणाजनक था । ” इन बुराइयों को समाप्त करने हेतु गान्धी जी ने गाँव वालों को शिक्षित करने का निश्चय किया।
8 नवम्बर 1917 को गान्धी जी महाराष्ट्र और गुजरात से कुछ समाजसेवी महिलाओं व पुरुषों को लेकर मोतिहारी लौटे जो छः माह रहकर गाॅव वालों को सफाई व शिक्षा के प्रति जागरूक करने का काम करना चाहते थे । गान्धी जी ने मोतिहारी के जिलाधीश जे एल मेरीमैन को आश्वस्त किया कि ये लोग रैयतों व प्लाण्टरों के विवाद से अपने को अलग रखेंगे ।
गान्धी जी ने 14 नवम्बर 2017 को बड़हरवा लखमसेन गाॅव में पहला स्कूल खोला, जो चम्पारण में ढाका के निकट था । यहाँ बम्बई से आए बबन गोपाल गोखले (46वर्षीय) व इनके साथ देवीदास गान्धी (28वर्षीय), छोटे लाल (20वर्षीय) तथा मोहम्मद इस्माइल (22वर्षीय) अध्यापक थे । यहाँ छात्रों की संख्या 150 थी जबकि कन्या पाठशाला में एकमात्र श्रीमती अवन्ती बाई गोखले ( 35 वर्षीय) अध्यापिका थी तथा छात्राओं की संख्या 35 थी । सभी छात्र छात्राओं की आयु 8 से 15 वर्ष थी ।
दूसरी पाठशाला 20 नवम्बर को अमोलवा से दो मील दूर सीरामपुर के समीप भीतहरवा में खोली गयी जिसकी जिम्मेदारी बेलगाँव के श्री सदाशिव लक्ष्मण सोमन (35 वर्षीय) को दी गयी । उनके सहयोग के लिए गुजरात के युवा श्री बालकृष्ण प्रभु राम योगी (30वर्षीय) थे। यहाँ कुल 29 छात्र थे । फरवरी 1918 में यहाँ कन्या पाठशाला भी खोल दी गई। इसमें आनंदी बाई (19वर्षीय) तथा दुर्गा बाई (25 वर्षीय) अध्यापिका थीं । इसमें 14 लड़कियां पढ़ती थीं । साथ ही डाॅ0 देव तथा तीन अन्य स्वयंसेवक आए। डॉ देव को चिकित्सा विभाग की जिम्मेदारी दी गई।
गान्धी जी ने 19 नवम्बर को मोतिहारी के जिलाधीश मेरीमैन को लिखे पत्र में सूचित किया कि 12 वर्ष से कम आयु के बच्चों को ही भर्ती किया जायगा । उनके सर्वतोमुखी विकास , हिसाब , इतिहास,भूगोल तथा विज्ञान का ज्ञान हिन्दी,उर्दू माध्यम से कराया जाएगा। लोगों को व्यक्तिगत सफाई एवं स्वास्थ्य की बातें बताई जाएंगी। शिक्षा को रोजगारपरक बनाया जाएगा।
इन विद्यालयों के कारण हो रहे उत्साहवर्धक सुधार के विषय में श्री बबन गोखले ने 6 दिसम्बर 1917 को गान्धी जी ( जो उस समय दिल्ली में थे ) को निम्न रिपोर्ट भेजी –
” हमलोगों ने गाँव के लगभग सभी कुओं को साफ व उपयोगी बना दिया है । इसके लिए कुछ कुओं के पास की नालियों को हटाना पड़ा है जिनके कारण कुओं का पानी दूषित हो जाया करता था। एक दो मामलों में काफी कठिनाई भी हुई क्योंकि किसी घर से नाली को दूसरी ओर पड़ोसी की जमीन से घुमाए बिना निकालना संभव नहीं था किन्तु हमलोग पडोसियों से अनुरोध करके यह काम भी कर सके ।”
अन्य लोगों को अपने घर के समीप पाखाना-पेशाब करने की गन्दी आदत को रोकने का हम प्रयत्न कर रहे हैं। स्कूल में छात्रों की संख्या 75 से ऊपर हो गयी है । डॉ देव ने अनेक रोगियो का उपचार किया । हमने गाँव वालों की एक सभा बुलाई थी जिसमें हिन्दुओं व मुसलमानों की समितियां बनाई गयीं जो प्राथमिक शिक्षा तथा ग्रामीण साफ सफाई के लिए काम करेगी ।
इससे उत्साहित तीसरी पाठशाला घनश्याम दास नामक एक सम्पन्न मारवाड़ी व्यापारी के अनुरोध पर 17 जनवरी 1918 को मधुबनी में खोली गयी । इसमें बाबू धरणीधर (40 वर्षीय) , रामरक्ष उपाध्याय उर्फ ब्रह्मचारी (25 वर्षीय) तथा बम्बई के स्वयंसेवक श्री विष्णु सीताराम रणविदे उर्फ अप्पा जी (38 वर्षीय) अध्यापक थे।
इनके अतिरिक्त मोतिहारी में गांधी जी के काम में हाथ बँटाने वाले निम्न प्रमुख सहकर्मी थे – बाबू गोरखनाथ प्रसाद, बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद, बाबू जनकधारी प्रसाद, डॉ हरिकृष्ण देव , जीबूतराम भागवतराम कृपलानी (जे बी कृपलानी) , श्रीमती कस्तूरबा गाँधी, महादेव हरिभाई देसाई , नरहरि द्वारका पारिख तथा उनकी पत्नी श्रीमती मणिभाई पारिख । साथ ही प्राणलाल प्रसाद राम योगी , विशर्न सीताराम रंधावा , ब्रजलाल भीम रुपानी तथा बालकृष्ण योगेश्वर भी गांधी जी के साथ चम्पारण में काम किए थे ।
जनकल्याण के प्रति समर्पित इन लोगों की निष्ठापूर्ण सेवा से ये विद्यालय वस्तुतः “आश्रम” बन गये थे । जनता पर इनका गहरा प्रभाव पड़ा । डॉ देव तथा उनके सहयोगियों की चर्चा करते हुए गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि डाॅ0 देव अपने स्वयंसेवकों सहित किसी गाँव को साफ सुथरा बनाने में पूरे मनोयोग के साथ लग पड़ते। वे आँगन व सड़कों पर झाड़ू देते ,कुओं को साफ करते, गन्दे गड्ढों को भरते और ग्रामवासियों को समझा बुझाकर स्वयंसेवक देने को उद्यत करते ।
गान्धी जी ने चम्पारण में नीलहे किसानों व अंग्रेज प्लाण्टरों के बीच की राजनीतिक लड़ाई के लिए बिहार के ही कार्यकर्ताओ से काम लिया क्योंकि इसमें जेल जाने की भी संभावना थी ।अतः गान्धी जी चाहते थे कि बिहार के कार्यकर्ताओं में साहस व निर्भीकता आए। वहीं द्वितीय कार्यक्रम शिक्षा, स्वास्थ्य व साफ सफाई के लिए विशेषतः बाहर के ही कार्यकर्ताओ से काम लिया । वह चाहते थे कि इससे बिहार के कार्यकर्ताओं की दृष्टि व्यापक बनाई जाय और वे दूसरे प्रान्तों के अनुभवी कार्यकर्ताओं से काम करने की शैली सीखें ।
चम्पारण में गांधी जी का ग्रामसुधार कार्यक्रम चल ही रहा था तभी अहमदाबाद से अनुसूया बहन का बुलावा आ गया जिससे फरवरी 1918 में गान्धी जी को जाना पड़ गया । सामाजिक उन्नति, शिक्षा और गाँवों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए गान्धी जी ने जो प्रयोग किये, वह भावी भारत के निर्माण का बेहतरीन खाका था । लेकिन बाद में देश की आजादी के राजनीतिक आन्दोलन में गांधी जी की व्यस्तता ने इसे पुष्पित पल्लवित होने का पर्याप्त अवसर नहीं दिया ।
आज जब हमारे प्रधानमंत्री जी खेतों किसानों और आत्मनिर्भर भारत की बात करते हैं तो यह वही रास्ता है जो हमें बापू ने दिखाया था । गांधी ने भारत के गरीब किसानों मजदूरों को नजदीक से देखा व समझा था । वह भारत के असली प्रतिनिधि थे और उनका बताया रास्ता ही आज भी भारत के विकास का वास्तविक रास्ता है । आज जब हम उनकी 150वीं जन्म जयंती मना रहे हैं तो उनके बताए रास्ते पर सही व ठोस कदम उठाकर ही हम भारत को विश्व गुरु बना सकते हैं ,यही उनके प्रति हमारी सही श्रद्धांजलि होगी ।